गंगा बड़ी न गोदावरी, न तीरथ बड़े प्रयाग।
सबसे बड़ी अयोध्या नगरी, जहाँ राम लीन्ह अवतार।।
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
अनुवाद : ” लक्ष्मण ! यद्यपि यह लंका सोने की बनी है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है। (क्योंकि) जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं। परन्तु भक्त- विचारक के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ऐसी विजयातीत श्री अयोध्या जी का प्राकट्य कैसे हुआ है? इस सन्दर्भ में एक बड़ी ही रोचक कथा है, जिसे पूर्ण श्रद्धा और विनीत भाव से हम यहाँ कहना चाहेंगे-
एक समय श्री पार्वती जी ने भगवान श्री शंकर जी से हाथ जोड़कर आदरपूर्वक पूछा- हे भगवन ! सत्जनों को सत्मार्ग का बोध कराने वाले विश्वन्द्य जगतगुरु एकमात्र आप ही हैं. जिन तत्वों को आप भली भांति जानते हैं वैसा कोई दूसरा जानने वाला नहीं है. हे महाभाग ! आपने कृपा करके हमें अनेकानेक तीर्थों की सुन्दर कथाओं का श्रवणपान कराया, फिर भी मेरी आत्मा पूरी तरह तृप्त नहीं हुई है. अतः अब आप हमें श्री राम जी की जन्मस्थली श्री अयोध्या जी धाम के प्रकटी की कथा सुनाइए. जिसके लिए हमारा मन ही नहीं वरन ह्रदय के अन्तः स्थल भी लालायित है. यहाँ उपस्थित ये सब मुनिगण भी इसी कथा को सुनाने के लिए उत्कंठा प्रकट कर रहे हैं. परम उज्जवल दिव्या गुणों से युक्त सनातन से सुप्रसिद्ध जो अयोध्यापुरी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, श्री हरी की प्रिय भूमि जहाँ स्वयं वो मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जन्म लेते हैं, सातों पुरियों में जो सर्वश्रेष्ठ मुक्ति दान करने में प्रशंसा पा रही है, वेदों में जो आदि स्थान के रूप में वर्णित है, वह अयोध्यापुरी किस प्रकार पृथ्वी ताल पर प्रकट हुई, उसका स्वरुप कैसा है? कौन- कौन से विशिष्ट सम्राट उसके उपभोक्ता हुए, इस प्रसंग को आप कृपा पूर्वक सविस्तार वर्णन कर हम सबकी श्रवण पिपासा को शांत करें. पार्वती जी की इस प्रकार प्रार्थना सुनाने के उपरांत आशुतोष भगवन शंकर अत्यंत प्रसन्न होकर श्री पार्वतीजी को धन्यवाद अर्पण करते हुए श्री अवध को मानसिक प्रणाम करके परम पवित्र श्री अवध को मानसिक प्रणाम करके परम पवित्र श्री अयोध्या जी के प्रकटी की कथा का वर्णन करने लगे. श्री शंकर जी ने कहा- हे देवी ! जिस अयोध्या जी के पश्चिम दिशा में ब्रह्मा जी से उत्पन्न घरघर नदी सदा प्रवाहित हैं, जिस पुरी के निकट पुण्यों को बढ़ने वाली श्री सरयू नदी सदा प्रवाहित हैं, जिस पुरी के निकट पुण्यों को बढाने वाली सरयू नदी है, जिसका सानिध्य सरयू नदी भी नहीं त्यागती, जहाँ पर भगवन विष्णु नित्य निवास करते हैं और जो सर्व विद्यायों की खानी है वह सर्वश्रेष्ठा विमलापुरी श्री अयोध्या सबको मंगल प्रदान करें.
हे मनोहरे ! उस दिव्य अवध की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा को सावधानी से सुनो। सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी के मानस पुत्रों में सर्वश्रेष्ठ स्वायम्भुव मनु हुए जो प्रजा पालन में अत्यन्त कुशल थे। वे एक समय सत्यलोक में गये और वहाँ पर श्री ब्रह्मा जी के समक्ष दण्डवत् करके हाथ जोड़े हुए विनम्र भाव से खड़े रहे। सर्वश्रेष्ठ महाराज मनु को विनम्र भाव से खड़े देखकर श्री ब्रह्माजी सुप्रसन्न होकर बोले- हे वत्स ! सृष्टि के सम्बन्ध में कुछ आवश्यकता से प्रेरित होकर आये हो तो मुझसे स्पष्ट कहो, किस लिए तुम्हारा आगमन हुआ? मैं यह सुनना चाहता हूँ। तब श्रीमनुजी ने कहा-भगवन्! आपकी आज्ञा से प्रेरित हो हम सृष्टि कार्य करने में तत्पर तो अवश्य हैं पर इसके लिए सबसे प्रथम हमें स्वयं ठहरने का कोई समुचित स्थल होना आवश्यक है। जहाँ पर रहकर हम सृष्टि सम्बन्धी कार्य कुशलता पूर्वक कर सकें। यह सुनकर श्री ब्रह्माजी मनु को साथ लेकर वैकुण्ठनाथ के समक्ष श्रीविष्णु लोक में पहुँचे। वहाँ परम पिता वासुदेव जगदीश्वर की भक्ति पूर्वक ब्रह्माजी स्तुति करने लगे। हे देवाधि देव! भक्तों पर अनुग्रह करने वाले आप अब मुझ पर कृपा कर सृष्टि कार्य के सुचारू संचालन के लिए अपनी दिव्य कला-किरणों से सुसज्जित मेरे प्रिय स्वायम्भुव मनु के लिए कोई निवास स्थान प्रदान कीजिये । ब्रह्माजी की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर साकेताधिपति भगवान् वासुदेव कहने लगे- हे ब्रह्मन ! इस दिव्य श्री वैकुण्ठपुरी में अनेक आश्चर्यमयी सम्पत्तियों से युक्त परम पवित्र जो साकेत धाम है वहीं अयोध्या नगरी मनु के निवास के लिये यहाँ से मैं प्रदान करता हूँ। श्रीविश्वकर्मा इसके निर्माण कार्य में अत्यन्त कुशल हैं। उनके द्वारा भारत भूमि में यह प्रतिष्ठित होगी। तब ब्रह्माजी से आज्ञा प्राप्त कर वहाँ से श्रीस्वायम्भुव मनु विश्वकर्मा जी को साथ लेकर पुरी निर्माण के लिए भारत में आये। श्रीवशिष्ठ जी को भी श्रीविष्णु भगवान ने मनु के निकट भेज दिया और आज्ञा दिया कि आप वहाँ जाकर जहाँ की पृथ्वी अत्यन्त रमणीय हो, जो भूमि हमारे लीला-विहार के लिए समुचित हो, वहाँ ही इस अवध की स्थापना करवाइये और मनु के निकट रहकर इस पुरी की संरक्षकता और सूर्य वंश का पौरोहित्य आप करते रहें। तदनुसार श्री वशिष्ठजी ने अपनी अग्निहोत्रादिक समस्त क्रिया-कलापों के सहित यहाँ उपस्थित होकर श्री रामचन्द्र जू की लीला स्थली को अच्छी तरह विचार कर विश्वकर्मा द्वारा मनोनीत रूप से इस अवधपुरी का सुन्दर निर्माण कार्य कराया। सब देवताओं से वन्दना पाने वाली श्री अयोध्यापुरी थोड़े ही समय में विष्णु भगवान् के आदेशानुसार विश्वकर्मा द्वारा रचकर तैयार हो गई। यह दिव्य पुरी अनेक दिव्य रत्नों के मण्डप और स्वर्ण कलशों से सुशोभित अत्यन्त रमणीय बनाई गई। रत्नों द्वारा पृथक् पृथक् अनेक महल एवं निवास करने के लिए दिव्य राजभवन आदि बनाये गये। उसमें चारों तरफ से चहार दीवारियाँ (परकोटे) और सुन्दर तोरण पताका आदि मंगल चिन्हों से सजाये हुए निवासगृह अत्यन्त शोभा पा रहे थे। उसमें सम्राट् के स्वयं रहने के लिए सुवर्ण से रचित एक सुन्दर किला बना था जो कि चांदी तथा तांबे की दीवारों से घिरा हुआ और चारों तरफ परिखाओं द्वारा ऐसा सुरक्षित बनाया गया जो शत्रुओं के आक्रमण में कभी न आ सके। उसके समीप और भी बड़े-बड़े महल बनाये गये। राजभवन, खाई, उपवन और परिखा इत्यादि रत्नों के तोरणों से सुसज्जित कई एक छोटे बड़े स्वर्ण रत्नमय महलों से युक्त इस पुरी का सुन्दर निर्माण श्री विश्वकर्माजी ने बड़ी कुशलता से किया। यहाँ के सभी मन्दिर लोहे, चाँदी तथा सुवर्ण के बनाये गये और मूंगा, मुक्ता, पन्ना, नीलम, स्फटिक मणि से जटित बने हुए थे। वहाँ के प्रत्येक और गृह सुन्दर के तोरण शोभा दे रहे थे। चारों ओर वहां की भूमि प्रकाशमयी थी रत्नों से ही वहां के सब मार्ग उज्ज्वल प्रकाश पा रहे थे।
सब देवतागण जिसके चारों तरफ वन्दना करते हुए उपस्थित थे। उस पुरी में जनता के लिए एकत्रित होकर बोलने बैठने के निमित्त सभागृह, भवन आदि अति सुन्दरता से कई एक बनाये गये थे। यह परम अयोध्यापुरी दुष्कृतशील अर्थात् पापवान् प्राणियों के लिए अत्यन्त दुर्लभ कही गई है। साक्षात् श्री हरि जहाँ पर स्वयं जन्म ग्रहण करके लीला विलास करते हैं और जो श्रीहरि का नित्य निवास स्थान है भला उस पुरी का सेवन कौन प्राणी नहीं चाहेगा। श्री सरयू नदी इसके निकट उत्तर बाहिनी होकर नित्य प्रवाहित हैं। सरयू तटवर्तिनी होने के कारण इस पुरी की शोभा अत्यन्त चित्ताकर्षक है। अनेक ऋषि मुनि महात्मागणों से संयुक्त होकर जो पुरी भारतवर्ष में सब तीर्थों का शीर्ष स्थान है, उस पुरी की महिमा भला कौन वर्णन कर सकता है? इतना कहकर भगवान शंकर जी ने आगे क्रमशः अयोध्या के अन्तर्गत समस्त तीर्थों की स्थिति और माहत्म्य सुनाया।
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